कोई इज़हार कर सकता है कैसे
ये लफ़्ज़ों से ज़बाँ का फ़ासला है
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अजब यक़ीन सा उस शख़्स के गुमान में था
अजीब सुब्ह थी दीवार ओ दर कुछ और से थे
हमारा डूबना मुश्किल नहीं था
एक बुज़ुर्ग शायर परिंदे का तजरबा
जिस ने इंसाँ से मोहब्बत ही नहीं की 'ताबिश'
कई पड़ाव थे मंज़िल की राह में 'ताबिश'
शायरों का जब्र
बे-घरी
यक़ीं से जो गुमाँ का फ़ासला है
न देखें तो सुकूँ मिलता नहीं है
कब खुलेगा कि फ़लक पार से आगे क्या है