कहीं से तुम मुझे आवाज़ देती हो
ग़ुबार-ए-शाम के बे-अक्स मंज़र में हवा की साएँ साएँ
पंछियों को हाँकती है
दूर चरवाहे की बंसी में मिलन-रस का सुरीला ज़ाइक़ा है,
रात रस्ते में
कहाँ से तुम मुझे आवाज़ देती हो!
मुसलसल आहटें मेरी समाअत ही न ले जाएँ
बचा रक्खे हुए आँसू की बीनाई टपकती है
इन्हीं लफ़्ज़ों की लौ में रात कटती है जिन्हें आँखों ने तस्वीर
शब-ए-व'अदा की संगीनी रिवायत है
मिरे इमरोज़ के चूल्हे में भी अब तक वही ईंधन
भड़कता है
अगर आवाज़-ए-रिवायत हूँ
अगर आवाज़ देती हो
तो आओ सुब्ह के साहिल को चलते हैं
लहू में कसमसाते क़हक़हे होंटों तक आने दो
मुझे भी मुस्कुराने दो
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