ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
क़तरे में मुहीत लाख क़ुल्ज़ुम
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शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
देखिए अहल-ए-मोहब्बत हमें क्या देते हैं
टूट कर अहद-ए-तमन्ना की तरह
पाबंदी-ए-हुदूद से बेगाना चाहिए
धूमें मचाएँ सब्ज़ा रौंदें फूलों को पामाल करें
अज़ाब टूटे दिलों को हर इक नफ़स गुज़रा
मंज़िलों को नज़र में रक्खा है
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
ज़ेर-ए-लब रहा नाला दर्द की दवा हो कर
शर्मिंदा हम जुनूँ से हैं एक एक तार के
सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे