शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
तेरे लिए सरापा आदाब हो गए हम
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टूट कर अहद-ए-तमन्ना की तरह
नफ़स की ज़द पे हर इक शोला-ए-तमन्ना है
पाबंदी-ए-हुदूद से बेगाना चाहिए
आईना जब भी रू-ब-रू आया
एक जल्वा ब-सद अंदाज़-ए-नज़र देख लिया
मंज़िलों को नज़र में रक्खा है
आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है
हमा-तन गोश इक ज़माना था
यूँ नक़ाब-ए-रुख़ मुक़ाबिल से उठी
मह-ओ-पर्वीं तह-ए-कमंद रहे
धूमें मचाएँ सब्ज़ा रौंदें फूलों को पामाल करें
सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे