अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
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Parveen Shakir
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Habib Jalib
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Wasi Shah
Ahmad Faraz
Mir Taqi Mir
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आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है
ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक
यूँ नक़ाब-ए-रुख़ मुक़ाबिल से उठी
हमा-तन गोश इक ज़माना था
हर इक दाग़-ए-दिल शम्अ' साँ देखता हूँ
शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
एक जल्वा ब-सद अंदाज़-ए-नज़र देख लिया
पाबंदी-ए-हुदूद से बेगाना चाहिए
छोटी पड़ती है अना की चादर
मह-ओ-पर्वीं तह-ए-कमंद रहे