आईना जब भी रू-ब-रू आया
अपना चेहरा छुपा लिया हम ने
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'ताबिश' हवस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक
टूट कर अहद-ए-तमन्ना की तरह
सब ग़म कहें जिसे कि तमन्ना कहें जिसे
अज़ाब टूटे दिलों को हर इक नफ़स गुज़रा
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
बहुत जबीन-ओ-रुख़-ओ-लब बहुत क़द-ओ-गेसू
शर्मिंदा हम जुनूँ से हैं एक एक तार के
हमा-तन गोश इक ज़माना था
शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
पाबंदी-ए-हुदूद से बेगाना चाहिए
ज़ेर-ए-लब रहा नाला दर्द की दवा हो कर
बंद-ए-ग़म मुश्किल से मुश्किल-तर खुला