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शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है - ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ कविता - Darsaal

शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है

शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है

ये आज़माइश-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र की मंज़िल है

सवाद-ए-शम्स-ओ-क़मर भी बशर की मंज़िल है

अभी तो परवरिश-ए-बाल-ओ-पर की मंज़िल है

ये मय-कदा है कलीसा ओ ख़ानक़ाह नहीं

उरूज-ए-फ़िक्र ओ फ़रोग़-ए-नज़र की मंज़िल है

हमें तो रास ही आई फ़ुग़ाँ की बे-असरी

मगर बताओ तो कोई असर की मंज़िल है

वो रहबरी-ए-जनाब-ए-ख़िज़र की मंज़िल थी

ये रहनुमाई-ए-फ़िक्र-ए-बशर की मंज़िल है

ये राज़ पा न सके साहिबान-ए-होश-ओ-ख़िरद

जुनूँ भी इक निगह-ए-पर्दा-दर की मंज़िल है

क़याम शामिल-ए-मश्क़-ए-ख़िराम है 'ताबाँ'

सफ़र का तर्क भी गोया सफ़र की मंज़िल है

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In Hindi By Famous Poet Taban Ghulam Rabbani. is written by Taban Ghulam Rabbani. Complete Poem in Hindi by Taban Ghulam Rabbani. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.