बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
इस मेहर ओ जफ़ा की नगरी से दिल के हैं मगर रिश्ते भी बहुत
अब कौन बताए वहशत में क्या खोना है क्या पाया है
हाथों का हुआ शोहरा भी बहुत दामन ने सहे सदमे भी बहुत
इक जोहद ओ तलब के राही पर बे-राह-रवी की तोहमत क्यूँ
सम्तों का फ़ुसूँ जब टूट गया आवारा हुए रस्ते भी बहुत
मौसम की हवाएँ गुलशन में जादू का अमल कर जाती हैं
रूदाद-ए-बहाराँ क्या कहिए शबनम भी बहुत शोले भी बहुत
है यूँ कि तरब के सामाँ भी अर्ज़ां हैं जुनूँ की राहों में
तलवों के लिए छाले भी बहुत छालों के लिए काँटे भी बहुत
कहते हैं जिसे जीने का हुनर आसान भी है दुश्वार भी है
ख़्वाबों से मिली तस्कीं भी बहुत ख़्वाबों के उड़े पुर्ज़े भी बहुत
रुस्वाई कि शोहरत कुछ जानो हुर्मत कि मलामत कुछ समझो
'ताबाँ' हों किसी उनवान सही होते हैं मिरे चर्चे भी बहुत
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