तिरे मिज़्गाँ की फ़ौजें बाँध कर सफ़ जब हुईं ख़ड़ियाँ
तिरे मिज़्गाँ की फ़ौजें बाँध कर सफ़ जब हुईं ख़ड़ियाँ
किया आलम को सारे क़त्ल लो थीं हर तरफ़ पड़ियाँ
दम अपने का शुमार इस तरह तेरे ग़म में करता हूँ
कि जैसे शीशा-ए-साअत में गिनता है कोई घड़ियाँ
हमीं को ख़ाना-ए-ज़ंजीर से उल्फ़त है ज़िंदाँ में
वगर्ना एक झटके में जुदा हो जाएँ सब कड़ियाँ
तुझे देखा है जब से बुलबुल-ओ-गुल ने गुलिस्ताँ में
पड़ी हैं रिश्ता-ए-उल्फ़त में उन के तब से गुल-छड़ियाँ
फ़ुग़ाँ आता नहीं वो शोख़ मेरे हाथ ऐ 'ताबाँ'
लकीरें उँगलियों की मिट गईं गिनते हुए घड़ियाँ
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