मरने की मुझ को आप से हैं इज़तिराबियाँ
मरने की मुझ को आप से हैं इज़तिराबियाँ
करता है मेरे क़त्ल को तू क्यूँ शिताबियाँ
मेरा ही ख़ानुमाँ नहीं वीराँ हुआ कोई
बहुतों की की हैं इश्क़ ने ख़ाना ख़राबियाँ
ख़्वान-ए-फ़लक पे नेमत-ए-अलवान है कहाँ
ख़ाली है महर-ओ-माह की दोनों रिकाबियाँ
हरगिज़ ख़ुम-ए-फ़लक में नहीं है शराब-ए-इश्क़
ग़ुंचों की ख़ून-ए-दिल से भरी हैं गुलाबियाँ
हल्क़ों से उस की ज़ुल्फ़ के रुख़्सार है अयाँ
'ताबाँ' जथे में देखो हैं क्या माह-ताबियाँ
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