काबा है अगर शैख़ का मस्जूद-ए-ख़लाइक़
काबा है अगर शैख़ का मस्जूद-ए-ख़लाइक़
हर बुत है मिरे देर का माबूद-ए-ख़लाइक़
नुक़सान से और नफ़अ से कुछ अपने नहीं काम
हर आन है मंज़ूर मुझे सूद-ए-ख़लाइक़
मैं दस्त-ए-दुआ उस की तरफ़ क्यूँकि उठाऊँ
होता ही नहीं चर्ख़ से मक़्सूद-ए-ख़लाइक़
फिरता है फ़लक फ़िक्र में गर्दिश में ये सब की
हरगिज़ ये नहीं चाहता बहबूद-ए-ख़लाइक़
'ताबाँ' मिरे मज़हब को तू मत पूछ कि क्या है
मक़्बूल हूँ ख़ल्लाक़ का मरदूद-ए-ख़लाइक़
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