हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
सितमगर बे-मुरव्वत बे-वफ़ा बे-रहम अचपल के
ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के
गिरफ़्तारी हुई है दिल को मेरे बे-तरह इस से
कि आए पेच में कहते ही उन की ज़ुल्फ़ के बल के
ये दौलत-मंद अगर शब को नहीं यारो तो फिर क्या है
कि हैं ये चाँदनी रातों को भी मुहताज मिशअल के
तुम्हारे दर्द-ए-सर से संदली-रंगो अगर जी दूँ
तू छापे क़ब्र पर देना मिरी तुम आ के संदल के
कोई इस को कहे है दाम कुइ ज़ंजीर कुइ सुम्बुल
हज़ारों नाम हैं काफ़िर तिरी ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल के
बयाबाँ बन हमें उल्फ़त नहीं है शहर से हरगिज़
तरह मजनूँ के 'ताबाँ' हम तो दीवाने हैं जंगल के
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