मैं किस लिए तुझे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई दूँ
कि मैं तो आप ही पत्थर हूँ अपने रस्ते का
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मंज़िलों उस को आवाज़ देते रहे मंज़िलों जिस की कोई ख़बर भी न थी
दिल के सहरा में बड़े ज़ोर का बादल बरसा
ग़ज़ब तो ये है मुक़ाबिल खड़ा है वो मेरे
कोई भी नक़्श सलामत नहीं है चेहरे का