ग़ज़ब तो ये है मुक़ाबिल खड़ा है वो मेरे
कि जिस से मेरा तअल्लुक़ है ख़ूँ के रिश्ते का
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दिल के सहरा में बड़े ज़ोर का बादल बरसा
कोई भी नक़्श सलामत नहीं है चेहरे का
मंज़िलों उस को आवाज़ देते रहे मंज़िलों जिस की कोई ख़बर भी न थी
मैं किस लिए तुझे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई दूँ