मेहर-ओ-वफ़ा ख़ुलूस-ए-तमन्ना मिलन की आस
कुछ कम नहीं कि हम ने ये मोती बचा लिए
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Habib Jalib
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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ख़्वाब और नींदों का ख़त्म हो गया रिश्ता
मंज़िल मिले न कोई भी रस्ता दिखाई दे
ख़ुद से लिपट के रो लें बहुत मुस्कुरा लिए
हुस्न-ए-यूसुफ़ किसे कहते हैं ज़ुलेख़ा क्या है
जिस्म ओ जाँ सुलगते हैं बारिशों का मौसम है
मुझ में आ कर ठहर गया कोई
खिड़कियाँ खोल लूँ हर शाम यूँही सोचों की
काश ऐसी भी कोई साअ'त हो
हर-सू ख़ुशबू को फ़ज़ाओं में बिखरता देखूँ
ये फ़ना मेरी बक़ा हो जैसे
कोई बतलाए माजरा क्या है