बहुत ग़ुरूर था बिफरे हुए समुंदर को
मगर जो देखा मिरे आँसुओं से कम-तर था
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खिड़कियाँ खोल लूँ हर शाम यूँही सोचों की
निगाह ओ दिल में वही कर्बला का मंज़र था
जिस्म ओ जाँ सुलगते हैं बारिशों का मौसम है
हुस्न-ए-यूसुफ़ किसे कहते हैं ज़ुलेख़ा क्या है
दर्द सीने में कहीं चीख़ रहा हो जैसे
कुछ ऐसा भी तो हो जाए कभी ऐसा करे कोई
वो जो मिलता था कभी मुझ से बहारों की तरह
ख़ुद से लिपट के रो लें बहुत मुस्कुरा लिए
काश ऐसी भी कोई साअ'त हो
सुब्ह को शाम लिख दिया मैं ने
मुझ में आ कर ठहर गया कोई