जुनूँ पे जब्र-ए-ख़िरद जब भी होश्यार हुआ
जुनूँ पे जब्र-ए-ख़िरद जब भी होश्यार हुआ
नज़र के साथ नज़ारा भी शर्म-सार हुआ
ग़म-ए-जहाँ! बहुत अच्छा उन्हें भला देंगे
ज़ह-ए-नसीब अगर दिल पे इख़्तियार हुआ
ये दौर दौर-ए-पुर-आशोब ही सही लेकिन
ज़माना पहले भी कब किस को साज़-गार हुआ
मिली हैं नौ-ए-बशर से मुझे वो ईज़ाएँ
कि जब भी ग़ौर क्या ख़ुद भी शर्मसार हुआ
किसी से तल्ख़ी-ए-हालात का गिला ही नहीं
कि जो हुआ वो ब-ईमा-ए-चश्म-ए-यार हुआ
ये ज़िंदगी का उफ़ुक़ भी अजब उफ़ुक़ है 'ज़मीर'
कि हर ख़याल सितारा बना ग़ुबार हुआ
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