दर्द में लज़्ज़त बहुत अश्कों में रा'नाई बहुत
दर्द में लज़्ज़त बहुत अश्कों में रा'नाई बहुत
ऐ ग़म-ए-हस्ती हमें दुनिया पसंद आई बहुत
हो न हो दश्त-ओ-चमन में इक तअ'ल्लुक़ है ज़रूर
बाद-ए-सहराई भी ख़ुश्बू में उठा लाई बहुत
मस्लहत का जब्र ऐसा था कि चुप रहना पड़ा
वर्ना उस्लूब-ए-ज़माना पर हँसी आई बहुत
बे-सहारों की मोहब्बत बे-नवाओं का ख़ुलूस
आह ये दौलत कि इंसानों ने ठुकराई बहुत
बे-ख़याली में भी कितने फ़ासले तय हो गए
बे-इरादा भी ये दुनिया दूर ले आई बहुत
अपनी फ़ितरत में भी रौशन होंगे लेकिन ऐ 'ज़मीर'
मेरी रातों से भी तारों ने चमक पाई बहुत
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