सज्जादा है मेरा फ़लक-ए-नीली-फ़ाम
तस्बीह कवाकिब आफ़्ताब उस का इमाम
तारे गिनता हूँ मैं सहर तक 'नाज़िम'
तस्बीह इमाम तक पहुँच कर हो तमाम
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चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
वो चश्मा दिला कहाँ से पैदा होगा
वो जब आप से अपना पर्दा करें
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी