'नाज़िम' उसे ख़त में कहते हो क्या लिखिए
हम क्या कहें हाल-ए-ज़ार अपना लिखिए
हो जाएगा ख़त बाल-ए-कबूतर पे गराँ
क्यूँ संग-दिली का शिकवा इतना लिखिए
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रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ
दिल में उतरी है निगह रह गईं बाहर पलकें
मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
जब कहो क्यूँ हो ख़फ़ा क्या बाइ'स
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत