हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
है इशरत-ए-राएगाँ बरस में दो बार
नौ-रोज़ और उस के बा'द 'नाज़िम' बरसात
है फ़स्ल-ए-बहार यहाँ बरस में दो बार
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मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
नागाह मुझे दिखा के ताब-ए-रुख़्सार
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
वाइ'ज़ ओ शैख़ सभी ख़ूब हैं क्या बतलाऊँ
हम उन की नज़र में समाने लगे
क्या खाएँ हम वफ़ा में अब ईमान की क़सम
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते