गो कुछ भी वो मुँह सी नहीं फ़रमाते हैं
शीरीं सुख़नी का हम मज़ा पाते हैं
अल्फ़ाज़ कुछ उन के मुँह में गिरानी हैं
लब खुल नहीं सकते बंद हो जाते हैं
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अपना अपना रंग दिखलाती हैं जानी चूड़ियाँ
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
आ जाए अगर हुक्म फ़लक से 'नाज़िम'
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
हम उन की नज़र में समाने लगे
वो चश्मा दिला कहाँ से पैदा होगा
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत