गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
ऐसा है कुछ इत्तिहाद बातिल है सरीह
जब मुमकिन वाजिब में होए ऐनियत
क्यूँ कर न कहूँ कि है हमा-ओ-अस्त सहीह
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थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
वही गुल है गुलिस्ताँ में वही है शम्अ' महफ़िल में
हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
वो जब आप से अपना पर्दा करें
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
बे दिए ले उड़ा कबूतर ख़त