वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
काम कुछ हम को न मस्जिद से न बुत-ख़ाने से
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Rahat Indori
Habib Jalib
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(636) Peoples Rate This
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
वही गुल है गुलिस्ताँ में वही है शम्अ' महफ़िल में
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा