रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
शाम को मस्जिद में होता हूँ जमाअत का शरीक
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ज़ाहिर में अगरचे यार ग़म-ख़्वार नहीं
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
वो जब आप से अपना पर्दा करें
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
वो चश्मा दिला कहाँ से पैदा होगा
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
वही गुल है गुलिस्ताँ में वही है शम्अ' महफ़िल में