क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
कश्ती मिरी खुली थी कि दरिया ठहर गया
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है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
ईद के दिन जाइए क्यूँ ईद-गाह
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
यहाँ काल से है तरह तरह की तकलीफ़
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
जब तिरा नाम सुना तो नज़र आया गोया
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
ले के अपनी ज़ुल्फ़ को वो प्यारे प्यारे हाथ में
हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन