कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
दीदा-ए-हूर कहा चाहिए पैमाने को
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कहते हो सब कि तुझ से ख़फ़ा हो गया है यार
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
मुहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
आशिक़-ए-हक़ हैं हमीं शिकवा-ए-तक़दीर नहीं
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
ले के अपनी ज़ुल्फ़ को वो प्यारे प्यारे हाथ में
सज्जादा है मेरा फ़लक-ए-नीली-फ़ाम
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो