कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
वाइ'ज़ से राह कीजिए पैदा किसी तरह
Faiz Ahmad Faiz
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Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
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Habib Jalib
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जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
बर-सर-ए-लुत्फ़ आज चश्म-ए-दिल-रुबा थी मैं न था
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
वो जब आप से अपना पर्दा करें
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
इख़्लास की धोके पर हूँ माइल तेरा
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम