जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
तुम कमाँ क्यूँ लिए फिरते हो अगर तीर नहीं
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मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
नागाह मुझे दिखा के ताब-ए-रुख़्सार
चाहूँ कि हाल-ए-वहशत-ए-दिल कुछ रक़म करूँ
भला क्या ता'ना दूँ ज़ुहहाद को ज़ुहद-ए-रियाई का
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
रोने ने मिरे सैकड़ों घर ढा दिये लेकिन
न बुज़ला-संज न शाएर न शोख़-तब्अ रक़ीब