जाती नहीं है सई रह-ए-आशिक़ी में पेश
जो थक के रह गया वही साबित-क़दम हुआ
Rahat Indori
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Gulzar
Parveen Shakir
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चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
शाएर बने नदीम बने क़िस्सा-ख़्वाँ बने
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
ज़ाहिर में अगरचे यार ग़म-ख़्वार नहीं
कहाँ है तू कहाँ है और मैं हूँ
हम उन की नज़र में समाने लगे
पुर्सिश को अगर होंट तुम्हारे नहीं हिलते
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
रोने की ये शिद्दत है कि घबरा गईं आँखें