हक़ ये है कि का'बे की बिना भी न पड़ी थी
हैं जब से दर-ए-बुत-कदा पर ख़ाक-नशीं हम
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रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
बरसों ढूँडा किए हम दैर-ओ-हरम में लेकिन
वही माबूद है 'नाज़िम' जो है महबूब अपना
आ जाए अगर हुक्म फ़लक से 'नाज़िम'
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
गर कहे हुलूल है वो इक अमर क़बीह
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए