घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
तंग इतना है कि गुंजाइश-ए-ता'मीर नहीं
Anwar Masood
Javed Akhtar
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Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Gulzar
Habib Jalib
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है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
गो कुछ भी वो मुँह से नहीं फ़रमाते हैं
क्या मेरे काम से है रवाई को दुश्मनी
शबिस्ताँ में रहो बाग़ों में खेलो मुझ से क्यूँ पूछो
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
कभी ख़ूँ होती हुए और कभी जलते देखा
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद
आशिक़ जो हुआ है तू किसी पर नागाह
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
मिल जाएँ अज़दहाम में हम ही ये हम से दूर
थी आसमाँ पे मेरी चढ़ाई तमाम रात
सज्जादा है मेरा फ़लक-ए-नीली-फ़ाम