चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
ज़रा हमारी तरफ़ से भी प्यार कर लेना
Ahmad Faraz
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Wasi Shah
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बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
यहाँ काल से है तरह तरह की तकलीफ़
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
ये बंदा-ए-ख़ाकसार या'नी 'नाज़िम'
ये किस ज़ोहरा-जबीं की अंजुमन में आमद आमद है
सूरत वो पहली कि हो मगर माह-ए-तमाम
बे-दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
वाइ'ज़ ओ शैख़ सभी ख़ूब हैं क्या बतलाऊँ
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
ईद है हम ने भी जाना कि न होती गर ईद