बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
लूँगा क्या नोक-ए-ज़बाँ से तेरे रुख़ का तिल उठा
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नागाह मुझे दिखा के ताब-ए-रुख़्सार
सँभाल वाइ'ज़ ज़बान अपनी ख़ुदा से डरा इक ज़रा हया कर
'नाज़िम' ये इंतिज़ाम रिआ'यत है नाम की
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
कम समझते नहीं हम ख़ुल्द से मयख़ाने को
बाक़ी न रही हाथ में जब क़ुव्वत-ओ-ज़ोर
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
रोज़ा रखता हूँ सुबूही पी के हंगाम-ए-सहर
ऐ नोश-ए-लब-ओ-माह-रुख़-ओ-ज़ोहरा-जबीं
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
अफ़्साना-ए-मजनूँ से नहीं कम मिरा क़िस्सा
बरसों ढूँडा किए हम दैर-ओ-हरम में लेकिन