बंद महरम के वो खुलवातें हैं हम से बेशतर
आज-कल सोने की चिड़िया है हमारे हाथ में
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गर अक़्ल-ओ-शुऊर की रसाई होती
जाँ-फ़िशानी का वाँ हिसाब अबस
उलझे जो रक़ीब से वो कल पी के शराब
साहिल पर आ के लगती है टक्कर सफ़ीने को
मैं ने कहा कि दा'वा-ए-उलफ़त मगर ग़लत
कुफ़्र-ओ-ईमाँ से है क्या बहस इक तमन्ना चाहिए
कलाम-ए-सख़्त कह कह कर वो क्या हम पर बरसते हैं
बे दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
हम ने सौ सौ तरह बनाई बात
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
कहते हैं छुप के रात को पीता है रोज़ मय
अंदाज़-ओ-अदा से कुछ अगर पहचानूँ