तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
तेरे दर से मैं उठा लेकिन न मेरा दिल उठा
छोड़ कर हो जिस तरह कासा कोई साइल उठा
क़ैस क्या जाने कि मेरा देखना मंज़ूर था
ख़ुद-बख़ुद हो जब हवा से पर्दा-ए-महमिल उठा
गिर्ये ने पहले ही अपना कर रखा था बंदोबस्त
मैं उठा भी वाँ से चलने को तो पा-दर-गिल उठा
बोसा-ए-आरिज़ मुझे देते हुए डरता है क्यूँ
लूंगा क्या नोक-ए-ज़बाँ से तिरी रुख़ का तिल उठा
जब उठा ख़ंजर न उस से इस अदा पर मर गए
हम से भी गोया न बार-ए-मिन्नत-ए-क़ातिल उठा
शिकवा-ए-बार-ए-ग़म-ए-हिज्राँ है ख़त में मुंदरज
नामा-बर कब हो के मेरे नामी का हाइल उठा
ग़ैर ने आ कर नहीं की गुदगुदी गर ख़्वाब में
नींद से क्यूँ इस तरह हँसता हुआ खिल-खिल उठा
गरचे रखता हूँ कहीं और पाँव पड़ता है कहीं
पर ग़नीमत है कि है मुँह जानिब-ए-मंज़िल उठा
अश्क गो आतिश नहीं 'नाज़िम' मगर तेज़ाब है
देख चश्म-ए-तर से अपनी आस्तीं ग़ाफ़िल उठा
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