इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
इस तवक़्क़ो' पे कि देखूँ कभी आते जाते
घिस गए पाँव रह-ए-दोस्त में जाते जाते
फ़िक्र-ए-दोज़ख़ में हमें रफ़अ'-मआ'सी की पड़ी
आग पर दामन-ए-तर को हैं सुखाते जाते
ग़ैर का ज़ोर चले उन पे और उन का मुझ पर
कहते हैं मुँह से हो क्यूँ राल उड़ाते जाते
ग़ैर को ले के गिरानी की न ठहरी होती
अपने दरवाज़े से मुझ को न उठाते जाते
क्यूँ निशाँ छोड़ गए तेज़-रवान-ए-रह-ए-इश्क़
काबा-ओ-बुत-कदा को चाहिए ढाते जाते
आग से सब्ज़ा कभी और कभी नख़्ल से आग
हैं हर इक रंग में नैरंग दिखाते जाते
सब्ज़ा बन जाएँगे आख़िर को चमन के सब सर्व
शर्म से तेरी ज़मीं में हैं समाते जाते
मुझ से बिगड़े हुए उन को हुई मुद्दत 'नाज़िम'
बीच वाले हैं अभी बात बनाते जाते
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