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इंक़लाब - सय्यद तसलीम हैदर क़मर कविता - Darsaal

इंक़लाब

ज़माने की हवा बदली उधर रंग-ए-चमन बदला

गुलों ने जब रविश बदली अनादिल ने वतन बदला

तरीक़ा आश्नाई का कभी ऐसा न बदला था

कि चाल उश्शाक़ ने बदली हसीनों ने चलन बदला

बदलते आए हैं यूँ तो हमेशा दौर गर्दूं के

न ऐसा भी कि हम बदले हमारा कुल जतन बदला

मक़ासिद मज़हब ओ मिल्लत के बदले दौर-ए-आलम ने

सहाइफ़ की शरह बदली किताबों का मतन बदला

बदल डाला है ऐसा मग़रिबी तहज़ीब ने हम को

मज़ाक़-ए-ख़वान-ए-निअमत और तर्ज़-ए-पैरहन बदला

पुरानी चाल बे-ढंगी हमारी देखें कब बदले

अभी तक जुग ही बदले थे ग़ज़ब ये है क़रन बदला

न बदला पर न बदला हाए तर्ज़-ए-म'अशरत क़ौमी

अगरचे सारी दुनिया का हुनर और इल्म-ओ-फ़न बदला

निज़ाम-ए-शाएरी में हाए आया इंक़लाब ऐसा

कि शान-ए-नज़्म बदली और अंदाज़-ए-सुख़न बदला

सलीक़ा इंतिक़ाद-ए-जिंस-ए-हिरफ़त का नहीं हम को

ज़र-ए-ख़ालिस से अबरेशम-नुमा यूरोप ने सन बदला

न बदला है न बदलेगा फ़क़त क़ानून-ए-इस्लामी

'क़मर' जब तक कि क़ुदरत ने न ये चर्ख़-ए-कुहन बदला

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