'शकील' हिज्र के ज़ीनों पे रुक गईं यादें
इसी मक़ाम पर आ कर ठहर गई शब भी
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तुझ से टूटा रब्त तो फिर और क्या रह जाएगा
इक तमन्ना है ख़मोशी के कटहरे कितने
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की मरे ज़िक्र पर झेंप जाती तो होगी
किस को ख़बर ये हस्ती क्या है कितनी हक़ीक़त कितना ख़्वाब
आज फिर वक़्त कोई अपनी निशानी माँगे
अक़ब से वार था आख़िर मैं आह क्या करता
मैं कर्ब-ए-बुत-तराशी-ए-आज़र में क़ैद था
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो कुछ तो दिल का हाल कहो
फिर कोई चोट उभरी दिल में कसक सी जागी
मौत के खूँ-ख़्वार पंजों में सिसकती है हयात