अहरमन का रक़्स-ए-वहशत हर गली हर मोड़ पर
बरबरिय्यत देख कर है ख़ुद क़ज़ा सहमी हुई
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गर्द-ए-सफ़र के साथ था वाबस्ता इंतिज़ार
ये ज़ाद-ए-राह हमेशा सफ़र में रख लेना
मौत के खूँ-ख़्वार पंजों में सिसकती है हयात
उस से बछड़ा तो यूँ लगा जैसे
रिश्ता रहा अजीब मिरा ज़िंदगी के साथ
मैं कर्ब-ए-बुत-तराशी-ए-आज़र में क़ैद था
उस से भी ऐसी ख़ता हो ये ज़रूरी तो नहीं
क्या तुम भी तरीक़ा नया ईजाद करो हो
'शकील' हिज्र के ज़ीनों पे रुक गईं यादें
अक़ब से वार था आख़िर मैं आह क्या करता
ये शबनम फूल तारे चाँदनी में अक्स किस का है
इक तमन्ना है ख़मोशी के कटहरे कितने