रिवाज-ओ-रस्म का उस को हुनर भी आता है
रिवाज-ओ-रस्म का उस को हुनर भी आता है
मुझे बुलाता भी है मेरे घर भी आता है
बदन का हुस्न दमकता है रात अँधेरे में
इक आफ़्ताब-ए-सहर बे-सहर भी आता है
जुदाइयों में फ़क़त घर से दूरियाँ तो नहीं
फ़िराक़ सूरत-ए-दीवार-ओ-दर भी आता है
मोहब्बतों में घुला जिस्म याद है मुझ को
कभी रक़ीब मिरा मेरे घर भी आता है
तिरे ख़याल में तेरे जमाल का परतव
मिसाल-ए-मौज भी मिस्ल-ए-गुहर भी आता है
फ़क़त ख़ुलूस में शिद्दत की बात है या'नी
मक़ाम दिल में है और बे-सफ़र भी आता है
ख़ुदा ने हुस्न दिया है तुझे कमाल मगर
उसे सजाने का तुझ को हुनर भी आता है
ये कौन है कि कहीं बैठने नहीं देता
उठूँ तो साथ मिरे दर-ब-दर भी आता है
'मुनीर' सुब्ह के ढलते ही लौ लगी चलने
अज़ाब सूरत-ए-बाद-ए-सहर भी आता है
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