दिल का दरवाज़ा खुला हो जैसे
दिल का दरवाज़ा खुला हो जैसे
और कोई झाँक रहा हो जैसे
ध्यान तेरा सहर-ओ-शाम नहीं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
दिल में कुछ और लबों पर कुछ और
तर्क-ए-उल्फ़त की दुआ हो जैसे
फिर वही ज़ुल्म वही ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
ख़ुश्क पत्तों में हवा हो जैसे
शहर-ए-बेदाद में हुब्ब-उल-वतनी
इक मुनाफ़िक़ की वफ़ा हो जैसे
दर्द बे-नूर हुआ जाता है
कम-निगाही की सज़ा हो जैसे
दफ़अ'तन ज़ेहन में वो गर्दिश-ए-मय
इक बगूला सा उठा हो जैसे
मुद्दतों बा'द सर-ए-राहगुज़र
अजनबी कोई मिला हो जैसे
जुरआ-ओ-लम्स की दरयूज़ा-गरी
रूह में क़हत पड़ा हो जैसे
याद यूँ दिल से गुज़रती है 'मुनीर'
दश्त में आबला-पा हो जैसे
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