ज़िंदगी की हर नफ़स में बे-कली तेरे बग़ैर
ज़िंदगी की हर नफ़स में बे-कली तेरे बग़ैर
हर ख़ुशी लगती है दिल को अजनबी तेरे बग़ैर
फ़स्ल-ए-गुल ने लाख पैदा की फ़ज़ा-ए-पुर-बहार
ग़ुंचा-ए-दिल पर न आई ताज़गी तेरे बग़ैर
तिश्ना-कामी को मिरी सैराब करने के लिए
उठते उठते वो नज़र भी रह गई तेरे बग़ैर
कोई जल्वा कोई मंज़र मुझ को भाता ही नहीं
चाँद की सूरत भी है बे-नूर सी तेरे बग़ैर
रह गया आख़िर सुकूँ-ना-आश्ना हो कर मुबीन
आहटें होने लगीं हैं दर्द की तेरे बग़ैर
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