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कसरत-ए-औलाद - सय्यद मोहम्मद जाफ़री कविता - Darsaal

कसरत-ए-औलाद

सुनिए इक ना-आक़िबत-अँदेश की फ़रियाद है

कह रहा है वो मुझे अपनी जवानी याद है

मैं जिसे कहता था घर वो आज तिफ़्ल-आबाद है

मेरी तन्हा जान है और कसरत-ए-औलाद है

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

वो भी क्या दिन थे कि जब ये मुफ़्लिसी छाई न थी

''आशिक़ी क़ैद-ए-शरीअत में'' अभी आई न थी

किस क़दर थे मुतमइन गो जेब में पाई न थी

कसरत-ए-औलाद के बाइस ये रुस्वाई न थी

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

क्या ख़ता मेरी कि जो बच्चा हुआ जुड़वाँ हुआ

और मआ हम-ज़ाद आजिज़ ही के घर मेहमाँ हुआ

मेरे घर आया तो गोया दाख़िल-ए-ज़िंदाँ हुआ

मुल्क में ग़ल्ले की क़िल्लत का नया उनवाँ हुआ

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

हो गए हैं एक दर्जन आज तक लख़्त-ए-जिगर

एक इन में रैफ़री ग्यारह खिलाड़ी हैं मगर

इस खिलाड़ी टीम में फूटबाल है इन का पिदर

उस को दौड़ाते हैं ये बच्चे इधर गाहे उधर

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

जा के पहले के लिए मोटी सिफ़ारिश लाऊँगा

मौक़ा-बे-मौक़ा अइज़्जा को बहुत दौड़ाऊँगा

अपने सारे दोस्तों की जान को आ जाऊँगा

और किसी दफ़्तर में उस को नौकरी दिलवाऊँगा

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

दूसरा बीमार है लाऊँगा मैं उस की दवा

ढूँढता हूँ तीसरे के दाख़िले को मदरसा

जा के चौथे ने जो हम-साए से झगड़ा कर लिया

इस को नेकी दे ख़ुदा से कर रहा हूँ ये दुआ

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

पाँचवाँ है और छटा है और पतंगें और डोर

सातवाँ है, आठवाँ है और नवाँ करते हैं ज़ोर

कोई बच्चा चीख़ता है और कोई करता है शोर

क्यूँकि ये इक दूसरे को छेड़ कर करते हैं बोर

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

हैं जो दसवीं, ग्यारहवीं, दोनों हैं कंधों पर सवार

ये दिला दो वो दिला दो कह रहे हैं बार बार

बारहवाँ बच्चा जो है वो कर रहा है माँ को ख़्वार

रात भर रोता है उस की गोद में वो ना-बकार

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

घर में मोटर भी बराए-बार-बरदारी नहीं

साथ ले जाने में बच्चों के ब-जुज़-ख़्वारी नहीं

एक बच्चा गोद में ले लूँ कि वो भारी नहीं

वो मगर दर्जन हैं मैं इंसान हूँ लारी नहीं

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

बात सच ये है कि हम थे जिस ज़माने में जवाँ

ख़ानदानी क़सम की मंसूबा-बंदी थी कहाँ

और अश्या-ए-ज़रूरी भी न थीं इतनी गिराँ

आज मैं हूँ और मेरी मुफ़्लिसी की दास्ताँ

''ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ''

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In Hindi By Famous Poet Syed Mohammad Jafri. is written by Syed Mohammad Jafri. Complete Poem in Hindi by Syed Mohammad Jafri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.