ग़म-हा-ए-रोज़गार से फ़ुर्सत नहीं मुझे
ग़म-हा-ए-रोज़गार से फ़ुर्सत नहीं मुझे
मैं कैसे कह दूँ तुम से मोहब्बत नहीं मुझे
अपनो की साज़िशों से ही मसरूफ़-ए-जंग हूँ
ग़ैरों से दुश्मनी की ज़रूरत नहीं मुझे
दिल में अभी चुभे हैं वो अल्फ़ाज़ तीर से
तू ने कहा था जब तिरी चाहत नहीं मुझे
पिन्हाँ हैं कुंज-ए-दिल में कई दर्द-ए-ला-दवा
बे-वज्ह मुस्कुराने की आदत नहीं मुझे
सौग़ात-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो मुक़द्दर की बात है
ऐ यार तुझ से कोई शिकायत नहीं मुझे
तन्हाइयों से मुझ को रिफ़ाक़त सी हो गई
'आरिफ़' सियाह शब से भी वहशत नहीं मुझे
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