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यादश-ब-ख़ैर साया-फ़गन घर ही और था - सय्यद मज़हर जमील कविता - Darsaal

यादश-ब-ख़ैर साया-फ़गन घर ही और था

यादश-ब-ख़ैर साया-फ़गन घर ही और था

लौटा मुसाफ़िरत से तो मंज़र ही और था

देखा अजीब रब्त अनासिर के दरमियाँ

बदला जो आसमाँ तो समुंदर ही और था

फिर यूँ हुआ कि अपने ही मेहवर से हट गई

वर्ना तो इस ज़मीं का मुक़द्दर ही और था

वो यूँ लगा है तुर्रा-ओ-दस्तार के बग़ैर

जैसे मियान-ए-दोश वहाँ सर ही और था

वो नौनिहाल जिस की नुमू है मिरा लहू

निकला जो मेरे क़द से तो पैकर ही और था

अस्बाब-ओ-ज़ाद-ए-राह तले दफ़न हो गया

पहने था जो बगूले वो लश्कर ही और था

मम्नून-ए-इल्तिफ़ात-ए-तवज्जोह रहा है जो

इक शख़्स बैठा मेरे बराबर ही और था

'मज़हर' को पूछते हो तो बस इतना जान लो

बीते हुए दिनों का वो 'मज़हर' ही और था

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In Hindi By Famous Poet Syed Mazhar Jameel. is written by Syed Mazhar Jameel. Complete Poem in Hindi by Syed Mazhar Jameel. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.