कुछ इस अंदाज़ से हैं दश्त में आहू निकल आए
कुछ इस अंदाज़ से हैं दश्त में आहू निकल आए
कि उन को देख कर फूलों के भी आँसू निकल आए
फ़लक को कौन सी वादी बरहना-सर नज़र आई
गरजते बादलों के लश्करी हर-सू निकल आए
अभी तो एक ही दिल का दरीचा वा किया मैं ने
यहाँ बहर-ए-ज़ियारत किस क़दर जुगनू निकल आए
जो सज्दे की नहीं तो रक़्स करने की इजाज़त हो
किसी सीने से जब बाहर तिरी ख़ुशबू निकल आए
इसी उम्मीद पर काटा सफ़र तारीक राहों का
न जाने कौन से गुम्बद से वो मह-रू निकल आए
चमन-ज़ार-ए-वफ़ा में मौसमों की अपनी फ़ितरत है
बुरीदा एक बाज़ू से कई बाज़ू निकल आए
कभी तो एहतियात-ए-ज़ोहद से हाएल हुए पर्दे
कभी मस्ती में भी तस्बीह के पहलू निकल आए
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