वो जो मक़ाम है तेरा मिरी कहानी में
उसी मक़ाम पे मैं तेरे तज़्किरे में रहूँ
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तड़प भी है मिरी और बाइस-ए-सुकूँ भी है
आज़ादी का महल्ल-ए-वक़ूअ'-1
जो साँस साँस सही उस सज़ा का नाम न लो
पुल-ए-सिरात न था दश्त-ए-नैनवा भी न था
निगह की शोला-फ़ज़ाई को कम है दीद उस की
रद्द-ओ-कद के भी ब'अद रह जाए
ये कैसी आया-ए-मोजिज़-नुमा निकल आई
बदन को वज्द तिरे बे-हिसाब-ओ-हद आए
दिल को तुम्हारे रंज की पर्वा बहुत रही
जो हो सका नहीं दरपेश उसे बनाता हुआ
ये कज-अदाई ये ग़म्ज़ा तिरा कभी फिर यार!
दरख़्त