इस क़दर ग़ौर से देखा है सरापा उस का
याद आता ही नहीं अब मुझे चेहरा उस का
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जो साँस साँस सही उस सज़ा का नाम न लो
वो याद कर भी रहा हो तो फ़ाएदा क्या है
वो जो मक़ाम है तेरा मिरी कहानी में
एक मुजस्समे की ज़ियारत
इक रोज़ ये सर-रिश्ता-ए-इदराक जला दूँ
तिरी जुदाई में ये दिल बहुत दुखी तो नहीं
फ़क़त क़याम का मतलब गुज़र-बसर कोई है
अगर ये ज़िंदगी तन्हा नहीं होती
ये कैसी आया-ए-मोजिज़-नुमा निकल आई
बाँहों में यार हो, कोई फ़ुर्सत की शाम हो
क़रार दीदा-ओ-दिल में रहा नहीं है बहुत