ख़ैर की नज़्र की है या शर की
इक ये पूँजी थी ज़िंदगी भर की
सारे रस्ते बुझा दिए मैं ने
इक गली ख़्वाब की मुनव्वर की
तुझ को इतने तो बल मैं दे लेता
जितनी शिकनें हैं मेरे बिस्तर की
ये मिरा दिल ये रेग-ज़ार-ए-फ़िराक़
देख ले आब इस समुंदर की
पीठ मोड़े हुए हर इक दीवार
भागना चाहती है इस घर की